पढ़ना मेरा शगल था। उस वक्त मैं बहुत छोटी थी, शायद दूसरी, तीसरी कक्षा में। पापा को पढ़ने का शौक था, वे लायब्ररी से पुस्तकें लाते थे। पुलिस की नौकरी, थककर आते थे और पढ़ते-पढ़ते सो जाते। उन्हें जासूसी कहानियाँ पढ़ना बड़ा अच्छा लगता था। उनके सोने के बाद ये जासूसी कहानियाँ मेरे कब्जे में आतीं थी और मैं किसी भूखे इंसान की तरह एक-एक कहानी को निगल लेती थी। मेरी पढ़ने की गति बड़ी तेज थी। पापा नींद से जागने से पहले ही मैं उस किताब को चट चुकी होती थी। 

छोटे बच्चे रामायण, महाभारत की कहानियां, ऐतिहासिक कथाएं या परिकथाएं पढ़ते हैं, जबकि मेरी पढ़ने की शुरुआत जासूसी कहानियों से हुई। शायद उन दिलचस्प कहानियों की वजह से पढ़ने का एक चस्का-सा मुझे लग गया था। बचपन में जो भी मराठी किताब, अखबार, पत्रिका हाथ लग जाती थी, मैं पढ़ जाती थी। खाना खाते समय भी एक हाथ में किताब या पत्रिका रहती थी और हरदम मम्मी की डांट सुननी पड़ती थी कि “खाते समय तो थाली में देखा करो।” जब हिंदी, अंग्रेजी के साथ जुड़ गए तब मराठी, हिन्दी या अंग्रेजी पत्रिकाएँ, अखबार तथा पुस्तकें सब कुछ मेरी पढ़ने की ललक के साथ जुड़ गया। 

उम्र के साथ किताबें बदलीं, विषय बदले, दिलचस्पी, पसंद बदली। बहुत-सी बातें, किताबें समय के साथ भूलती गयी। लेकिन कुछ पढ़ी हुई किताबें आज भी जहन में कायम हैं। आज भी वे झकझोर देती हैं। उन किताबों में मौजूद व्यक्तित्व आज भी सामने आते हैं, याद दिलाते है अपनी। समझदारी की उम्र (हालांकि समझदार हुए हैं, ऐसा आज भी नहीं लगता) में कुछ किताबें ऐसी रहीं, जिन्होंने अपनी ऊर्जा से मुझे भर दिया। उन व्यक्तित्वों में जो सकारात्मकता या संघर्ष या जद्दोजहद थी, उसने मुझे अपनी जिंदगी में भी लड़ने के लिए प्रेरित किया। “72 मील” स्व. अशोक वटकर, इस मराठी दलित लेखक की वह आत्मकथा या उपन्यास- आप इसे कुछ भी नाम दीजिए, जब भी मैंने इसे पढ़ा, इसने मुझे झकझोर कर रख दिया। इस किताब की नायिका-राधाक्का का संघर्ष मुझे अपना सा लगा। इसलिए इस किताब का अनुवाद करते समय, भाषा का एक नया चोगा उस किताब को पहनाते समय, कितनी ही बार मैं भरभरकर रो दी थी। 

हालांकि इससे पहले भी मुझे मराठी के वि.स. खांडेकर जी के “अमृतवेल” इस उपन्यास तथा शिवाजी सावंत के “मृत्युंजय” इस कर्ण की कहानी ने हर बार गला रुंधने तथा आंखें भर-भर कर झरने के लिए मजबूर किया था। “अमृतवेल” का देवदत्त, “मृत्युंजय” का कर्ण मेरे हीरो बन गए थे।

फिर अचानक मार्गारेट मिशेल का ‘Gone with the wind’ यह उपन्यास मैंने पढ़ा और वह कलोनियल माहौल, वह ब्रिटीशकालीन अदब, शिष्टाचार और इन सब बातों से भी स्कारलेट ओ हारा का वह चरित्र, वह वर्णन मुझे अपने साथ बहा ले गया। जिंदगी जितनी संघर्षों के लिए आजमा रही थी, उतनी ही शिद्दत से मेरे किताबी नायक और नायिकाएं मुझमें लड़ने, संघर्ष और चुनौतियों का सामना करने हेतु ऊर्जा भर रही थी। 
“मुझे चांद चाहिए” यह किताब उम्र के उस मुकाम पर मेरे हाथ आयी थी, जब सब कुछ आकर्षक लगता है, तब नायिका के समर्पण, जुनून ने वशीभूत कर दिया था।

उम्र और अनुभवों के साथ जिंदगी आगे बढ़ रही थी और सआदत हसन मंटो की कहानियों ने और उन कहानियों में मौजूद विभीषिकाओं ने मुझे बिखरते बिखरते संवरने तथा जिंदगी की वास्तविकताओं के कठोर धरातल पर ला पटका। स्वार्थ और जिंदगी की संजीदगी का ऐसा मंजर मैंने न देखा था न सुना था। मंटो ने एक नई दुनिया मेरे सामने परोस दी थी। उस दुनिया से रूबरू होना मेरे लिए इतना कठिन गुजरा की, कोई भी कहानी मुझे सोने नहीं देती थी। 

कविताएं, यात्रा-वर्णन, आत्मकथाएं भी मुझे पढ़ने के लिए आकृष्ट करती थीं और मैं उसी शिद्दत से पढ़ती जाती थी। यदि सबके बारे में लिखने जाऊं तो स्याही और कागज कम पड़ जाएंगे। 

लेकिन इयान रैंड की बात ही कुछ अलग रही। “We, the living”, “Atlas Shrugged”, “Anthem” और “Fountainhead” अपनी इन चंद किताबों के जरिए इस लेखिका ने मुझे घेर लिया। इन किताबों के वे व्यक्तित्व, जीवन और सफलता के लिए उनका चलता संघर्ष और उस संघर्ष से उभरा उनका जीवन। जीवन जीने के लिए उनके द्वारा अपनाया गया दर्शन (यह दर्शन लेखिका ईयान रैंड का भी है) हमारे जीने का सामान बन जाता है। ये व्यक्तित्व, यह दर्शन मुझे कहीं दूरतलक ले गया, जहां मैं थी, सिर्फ मैं और मेरे जीने का अंदाज! इस “मैं” ने मुझमें एक आत्मविश्वास, आत्मसम्मान भर दिया। अपने बलबूते पर जिंदगी जीने का विश्वास दिलाया।

आज भी जब मुझे अकेलापन महसूस होता है, आज भी जब शाम को सूरज ढलने के बाद और रात होने के बीच का समय लहराता रहता है, आज भी जब रात में कभी नींद नहीं आती है और दिल बेतहाशा रोने के लिए करता है लेकिन एक भी आँसू आंखों से ढुलकता नहीं, आज भी जब मैं थक हारकर हारने की कगार पर पहुँचती हूँ, आज भी जब मैं कभी कभार जिंदगी से बेजार हो जाती हूं, ये मेरी चुनिंदा किताबें और उन किताबों के वे संघर्षरत व्यक्तित्व सामने खड़े हो जाते हैं और मुझसे कहते हैं, “सो जा अब… रात बहुत हो चुकी है।” और किसी लोरी के सुरों में अभिभूत और आप्लावित छोटे बच्चे की तरह मैं चुपचाप सो जाती हूं। सुबह जब भी मैं जाग जाती हूं मेरी नजर और बदन में मेरा पुरजोर विश्वास होता है।

Published in Garbhanal Patrika, Sept 2016 Edition.

1 Comment

  • पंकज कुमार गुलिया Posted July 7, 2022 3:05 pm

    यही तो लेखन और लेखकों की जादूगरी है कि चंद फड़फड़ाते पन्नों और थोड़ी सी स्याही के कतरों से वो जादू बिखेर देते हैं कि जीवन के कठिन दौर से गुजरना भी मुश्किल नहीं लगता।
    ऐसे होंसले जगाने वाले तमाम लेखकों और उनकी रचनाओं को नमन।

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